यादों का हुजूम


ऐसा बहुत बार हुआ है, छुटिट्याँ हो जाती थीं, सब पैकिंग करके घर के लिए रवाना हो जाते थे। कटनी से आने वाली ट्रेन अक्सर देरी से पहुँचती थी तो मामूली सी बात है, जो भी लेने पहुँचता था मुझको लेट हो जाता था। अक्सर शनिवार से छुटिट्याँ लगती थीं और शनिवार को हमारा स्कूल १२ बजे तक लगता था।
बारह से पॉंच तक का समय गुज़ारना होता था, कुछ टाईम पैकिंग में, कुछ समय हॉस्टल साथियों को अल्विदा कहने में गुज़र जाता, तकरीबन 3बजे तक सब निकल लेते और खाली हॉस्टल में मैं अकेले बचती।
और आमूमन छुटिट्याँ लगने के कारण हॉस्टल में सफ़ाई अभियान शुरु हो जाता । लाईन से जमे पलँगों में गद्दे तह  कर के रख दिये जाते, मतलब समझ जाओ कि आराम करने कि जगह चली गई ।

तो अब क्या किया जाए?

ऊबा हुआ म्यूज़िक प्लेयर था एक, जिसे सिर्फ़ रविवार या कुछ खास मौकों पर बजाने  कि अनुमति थी। एक टीवी भी थी, जो  सामने पर दूर खड़ी मेस की दीवार में लियोनार्डो दा विंसी( विन्ची है या विंसी हमको नहीं मालूम, हम शेक्सपियर का लिखा मानेंगे... what's in a name?) की पेंटिंग ,'द लास्ट सपर'('The Last Supper') को एकटक देखा करती, हम रोज़ भले ही आधे घंटे के लिए पर उस बदनसीब टीवी का नसीब ज़रूरत बदलते; उसे नियमित रूप से डिनर के समय( साढ़े सात से आठ तक) चालू रक्खा जाता ।
समझ आया  कुछ? मतलब की हॉस्टल वालों की  हम बच्चों को टेक्नोलॉजी से दूर  रखने  की पूर्ण कोशिश रहती। मेरे पास मनोरंजन का कोई और ज़रिया न होता।  
इसलिए मैं मेज़ और बेंच की लंबी कतार में से दूसरी नंबर वाली बेंच को चुनती और उस पर बैठ जाती। बेंच पर बैठे , जालियों के ज़रिये मैं देखती थी अपने स्कूल को रंगते हुए, देखती थी उन लोगों को जो तपती धूप में हमारे स्कूल को रंग के उसकी सुंदरता बढ़ा रहे हैं। फिर एक बार पूरे हॉस्टल का जायज़ा लेती और  निहारती Jesus Christ की पेंटिंग्स को। क्रिस्चियन स्कूल में अगर आपने यीशु मसीह की तस्वीरें नहीं देखीं तो बताओ क्या देखा!? हमारे हॉस्टल में हर दूसरी दिवार में उनकी पेंटिंग्स या कोई तस्वीर दिख जाएगी।  हाँ, तो मैं जाएज़ा लेती और पेंटिंग्स देखती, देखती उस पेंटिंग को; जिसमें यीशू बने हैं Sailor...  एक पेंटिंग थी जिसे मैं  नियमित तौर पर देखती थी । उस पेंटिंग के निचले कोने पे लिखा था 'SHRAVI VIDYARTHI. I 'C'', किसी को नहीं पता कौन है यह Shravi, हॉस्टल की सभी नयी-पुरानी लड़कियों ने  अपनी-अपनी  थ्योरीज़ बना रखी थी इस बारे में, पर किसी ने वार्डन मैम से पूछने की ज़हमत तक नहीं की... 

आईने के सामने अजीब और डरावनी शक्ल बनाने की आदत मेरी पुरानी है। ऐसा करने से मैं तब भी अपने दर्पण से डर जाया करती और अब भी।  अजीब बात है, कभी-कभी इंसान खुद ही से डरता है और खुद का सबसे बड़ा दुश्मन हो जाया करता है... हाँ, तो मैं खुद से डर जाती और मेरा डर दोगुना हो जाता, क्योंकि मुझे किसी ने कह दिया था  कि हमारा स्कूल और हॉस्टल कब्रिस्तान के ऊपर बना है! मुझे लगता है कि अधिकतर स्कूलों में यह अफवाह उड़ी रहती है की स्कूल में भूत हैं या स्कूल कब्रिस्तान के ऊपर बना है। ख़ैर, मुझे क्या। मैं डर के वापस वही दूसरी नंबर वाली बेंच पर बैठ जाती, कोयल कूकती जैसे उसे पता हो कि मैं उसी का करुण गान सुनने बैठी हूँ। इतने में गार्डनर भैया आ जाते और उनके साथ आती मिट्टी की सौंधी खुश्बू, क्योंकि वह दे रहे होते पौधों को पानी। उनके चेहरे पे निश्चिंतता का भाव रहता, जैसे कोई माँ बच्चे को खाना खिलाकर संतुष्ट हो जाती हैं... पता नहीं कैसे आधा-पौना घंटा यूँही महक लेते गुज़र जाता... फिर कोई लेने आ जाता और मैं रवाना हो जाती स्टेशन के लिए अपने हॉस्टल को अकेला छोड़कर...  
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ऊपर लिखी याद का कारण डेढ़ साल पुरानी बात है।  डेढ़ साल पहले, एक सुबह , एक दोस्त ने मन की कोई बताने को कहा था, सुबह की अज़ान सुनते हुए मैंने उसे WhatsApp पर text के रूप में एक वाकया बताया था। समय की पाबंदी के चलते वाकया पूरा नहीं हो पाया , पर उसको पढ़ने में अच्छा लगा, और उसने  'complete' करके उसे पढ़ाने को कहा ।  डेढ़ साल से मैं उस वाकये में , उस याद में, और यादें जोड़कर उसे 'complete' और ख़त्म करने की कोशिश कर रही हूँ, पर अब तक end कैसे किया जाए समझ नहीं आया मुझे । मैं और लिख सकती हूँ पर पूर्ण नहीं कर सकती।  स्कूल में भी मुझे किसी निबंध के उपसंहार को लिखने में कठिनाई होती थी, और फ़िर तो यह यादें ठहरी...
यादों के ऊपर यादों की अनगिनत परतें होती हैं ,
कहो दोस्त ,यादें कैसे ख़त्म होती हैं ?

Comments

  1. पता नहीं पर लिखी कैसे जाती है सीख लिया😊

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